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Revision as of 10:07, 11 December 2011

क्यूँ हो अधिकारों का हनन?

by Alokita Gupta

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कहते है परिवर्तन संसार का शाश्वत सत्य है. सकारात्मक हो या नकारात्मक परिवर्तन होते रहना अटल सत्य है. धरती पर जब से मानव सभ्यता आई तबसे लगातार परिवर्तन हो हीं रहे हैं. सबसे पहले सभ्यता आई फिर लोगों के रहन सहन और विचार बदलें और शुरू हुआ मानव का विकास. इसी विकास के क्रम में मानवों ने एक शब्द सीखा 'मानवीय अधिकार' विकास कि दिशा में बढ़ते हुए हीं मानव ने व्यवसाय के भी गुर सीखे. परिवर्तन उसके बाद भी होता रहा अधिकारों में परिवर्तन हुए, कुछ नए आयाम जुड़े तो कुछ अधिकारों का खंडन किया गया और ऐसा हीं बदलाव व्यवसाय के क्षेत्र में भी हुआ पहले व्यवसाय के अंतर्गत सामान बिकते थे, इंसान बिकते थे(कुछ काल तक), फिर धीरे-धीरे यहाँ ईमान भी बिकने लगे और अब तो ईमान का बिकना भी पुरानी बात हो चुकी है. बिल्कुल अलग से दिखने वाले दोनों शब्द 'अधिकार' और 'व्यवसाय' परिवर्तित होते होते कुछ हद तक मिश्रित हो गए हैं और फल स्वरुप अब अधिकार भी बिकने लगे हैं. अधिकार का बिकना सुनकर कई प्रश्न उठे होंगे ज़हन में महज़ किसके अधिकार? कौन बेच रहा है? खरीद कौन रह है? कौन सा अधिकार बिक रहा है? पर अचानक से इन सब का जवाब लिख देना सही नहीं होगा क्यूंकि किसी भी तथ्य को समझने के लिए उसके सतह तक जाना बहुत जरुरी होता है इसलिए पहले ये जानना ज्यादा जरुरी है कि ये अधिकार किसे और क्यूँ दिया गया है? अपन देश कि अर्थ व्यवस्था को सुधारने और सुद्रढ़ बनाने के लिए नीतियाँ बनाने के क्रम में हमारे देश के कुछ अर्थशास्त्रियों का ध्यान गया देश के विकलांग लोगों पर जो कि समाज के बिल्कुल निचले पायेदान पर जीने(जीवन काटने) को मजबूर थे. अर्थशास्त्र के अनुसार जितने भी प्राकृतिक संसाधन है उनमें सर्वोपरी है 'मानव संसाधन' और इसलिए देश को मानव संसाधन के विकास पर ध्यान देना चाहिए और विकलांगो के बारे में उनका कहना था कि अपनी शारीरिक अक्षमताओं के बावजूद भी उनमें जो क्षमताएं हैं उनका प्रयोग देश कि अर्थ व्यवस्था को सुधारने में उतनी हीं मददगार साबित होंगी जितनी कि एक सक्षम व्यक्ति कि इसलिए शिक्षा और रोज़गार में उन्हें भी हिस्सेदारी मिलनी चाहिए. एक विकलांग व्यक्ति को देश के लिए दायित्व बनाकर वहन करने से बेहतर है उन्हें शिक्षा और रोज़गार के मौके देकर देश कि अर्थव्यवस्था के लिए एक सम्पदा तैयार करना. इन्ही नीतियों के तहत विकलांगों को मुख्यधारा से जोड़ने के प्रयास शुरू हुए और उसी के तहत उन्हें कुछ मुलभुत अधिकार दिए गए जो कि उनके विकास के लिए आवश्यक थे. इन्ही अधिकारों के अंतर्गत परीक्षा में खुद लिख पाने में अक्षम लोगों को स्क्राइब (किसी के बदले परीक्षा लिखने वाले) देने कि व्यवस्था कि गयी लेकिन इस परिवर्तन में एक त्रुटी रह गयी और वह ये कि इन स्क्राइब के लिए परीक्षार्थी को खुद हीं खर्च वहन करने पड़ते हैं. स्क्राइब कि व्यवस्था उनके अधिकार के अंतर्गत आता है और उसके लिए उन्हें रूपए अदा करने होते हैं तो क्या इन्हें अधिकार को खरीदना नहीं कहेंगे? और जिस चीज़ को ख़रीदा जाए वह अधिकार कैसे कहला सकता है? हालांकि परिवर्तन के इस उपक्रम में एक सकारात्मक परिवर्तन भी हुआ है और दिल्ली विश्वविद्यालय ने इसी वर्ष नवम्बर माह से इस व्यवस्था को बदलते हुए ऐलान किया है कि स्क्राइब के रोजाना खर्च के रूप में २५० रूपए प्रतिदिन के हिसाब से सरकार रूपए मुहैया कराएगी. विकलांगता के अंतर्गत दिए गए अधिकारों कि सुरक्षा के लिए इसे एक सार्थक कदम माना जा सकता है पर देश के अधिकांशतः विश्वविद्यालयों में अब भी ये परिवर्तन आना बाकी है और यह सकारात्मक परिवर्तन हर विश्वविद्यालय और महाविद्यालय में आना हीं चाहिए.


Alokita

The author writes regularly for CTH. She may be contacted at contact@crossthehurdles.com